सफेद बालों के बीच से झांकता हुआ ताजा गुलाब का फूल और झुर्रियों वाले पैरों में पायल और उनके स्कूल बैग में आधार कार्ड। हैरान न हों, यह नजारा है ठाणे के फंगाणे गांव के ग्रैनी स्कूल का है। इस आइजी बाइची शाला में 70 साल की शेवांता केदार अपने साथ एक बोतल में पानी लाई हैं ताकि उन्हें स्लेट पर लिखा हुआ थूक से न मिटाना पड़े। उनकी बाकी सहपाठी स्लेट को थूक से मिटाती हैं। टीचर शीतल उनसे कहती हैं कि वे साड़ी से मिटा लें लेकिन उनके कहने का कोई असर नहीं होता है। इनको अपनी गुलाबी साड़ी बेहद प्यारी है।
फंगाणे में आइजी बाइची शाला तीन साल पहले महिला दिवस के मौके पर शुरू किया गया था। ये महिलाएं यहां मराठी लिखना और पढ़ना सीखती हैं। फंगाणे एक सूखा गांव हुआ करता था जहां कई समस्याएं थीं। इन्हीं समस्याओं के कारण कोई टीचर यहां अपनी पोस्टिंग नहीं चाहता था। 2013 में योगेंन्द्र बांगड़ की जिला परिषद प्राइमरी स्कूल में हेडमास्टर की तरह नियुक्ति हुई। तब यहां कि औरतें लगभग 3 किलोमीटर पैदल पानी लेने जाती थीं। ऐसे में बांगड़ ने तय किया की वह इन औरतों के सिर से घड़े हमेशा के लिए हटाएंगे। उन्होंने एक चैरिटेबल ट्रस्ट की मदद से गांव में रेनवाटर हारवेस्टिंग पिट और पाइपलाइन लगवाईं।
ऐसे शुरू हुआ था स्कूल
इसके बाद एक समारोह में जब कुछ महिलाओं ने मराठी न पढ़ पाने पर अफसोस जताया तो इस आइजी बाइची शाला का ख्याल आया। इसके बाद इन बुजुर्ग महिलाओं के लिए एक वीकेंड स्कूल शुरू किया गया। बांगड़ बताते हैं कि पहले इनके लिए हरा यूनिफॉर्म तय किया गया था लेकिन कई महिलाएं विधवा हैं और वे हरी साड़ी नहीं पहनतीं। इसके बाद उन्होंने गुलाबी साड़ी यूनिफॉर्म के लिए तय की।
बच्चों पढ़ने से कठिन है
यहां पढ़ाने वालीं शीतल बताती हैं कि बुजुर्गों को पढ़ाना बिल्कुल अलग है। 'मैं उन्हें डांट नहीं सकती हूं। उनमें से किसी को सुनने में दिक्कत होती है तो किसी की नजरें कमजोर हैं। ऐसे में मैं कभी उनके कान में जोर-जोर से बोल कर सिखाती हूं तो कभी उनका हाथ पकड़कर लिखना सिखाती हूं। यहां मैं सबको एकसाथ नहीं पढ़ा सकती। सबके एक-एक करके देखना पड़ता है।'
फंगाणे में आइजी बाइची शाला तीन साल पहले महिला दिवस के मौके पर शुरू किया गया था। ये महिलाएं यहां मराठी लिखना और पढ़ना सीखती हैं। फंगाणे एक सूखा गांव हुआ करता था जहां कई समस्याएं थीं। इन्हीं समस्याओं के कारण कोई टीचर यहां अपनी पोस्टिंग नहीं चाहता था। 2013 में योगेंन्द्र बांगड़ की जिला परिषद प्राइमरी स्कूल में हेडमास्टर की तरह नियुक्ति हुई। तब यहां कि औरतें लगभग 3 किलोमीटर पैदल पानी लेने जाती थीं। ऐसे में बांगड़ ने तय किया की वह इन औरतों के सिर से घड़े हमेशा के लिए हटाएंगे। उन्होंने एक चैरिटेबल ट्रस्ट की मदद से गांव में रेनवाटर हारवेस्टिंग पिट और पाइपलाइन लगवाईं।
ऐसे शुरू हुआ था स्कूल
इसके बाद एक समारोह में जब कुछ महिलाओं ने मराठी न पढ़ पाने पर अफसोस जताया तो इस आइजी बाइची शाला का ख्याल आया। इसके बाद इन बुजुर्ग महिलाओं के लिए एक वीकेंड स्कूल शुरू किया गया। बांगड़ बताते हैं कि पहले इनके लिए हरा यूनिफॉर्म तय किया गया था लेकिन कई महिलाएं विधवा हैं और वे हरी साड़ी नहीं पहनतीं। इसके बाद उन्होंने गुलाबी साड़ी यूनिफॉर्म के लिए तय की।
बच्चों पढ़ने से कठिन है
यहां पढ़ाने वालीं शीतल बताती हैं कि बुजुर्गों को पढ़ाना बिल्कुल अलग है। 'मैं उन्हें डांट नहीं सकती हूं। उनमें से किसी को सुनने में दिक्कत होती है तो किसी की नजरें कमजोर हैं। ऐसे में मैं कभी उनके कान में जोर-जोर से बोल कर सिखाती हूं तो कभी उनका हाथ पकड़कर लिखना सिखाती हूं। यहां मैं सबको एकसाथ नहीं पढ़ा सकती। सबके एक-एक करके देखना पड़ता है।'
Source : navbharattimes[dot]indiatimes[dot]com
No comments:
Post a Comment